Powered by Blogger.

My Instagram

भारत की गुलामी का इतिहास और भविष्य का भारत

India's history of slavery and future of India

भारत के 525 वर्ष पूर्व का समय 
हर व्यक्ति देश की दुर्दशा देख कर एक ही प्रश्न पूछता है, यदि हम आजाद हैं तो देश में ऐसा क्यों हो रहा है ? इस प्रश्न के जवाब के लिए इतिहास पें पन्नों को एक एक कर पीछे की तरफ उलटाते जायें तो यह सफर रुकता है वर्ष 1492 में ! आज से लगभग 525 वर्ष पूर्व का समय, जब पश्चिम जगत नंगा भूखा घूम-घूम का डकैतियाँ डालता फिरता था और भारत सोने की चिड़िया कहलाता था | यही से विश्व का विनाशकाल शुरू हुआ ।

सोलहवीं शताब्दी के पूर्व तक विश्व पुर्तगाल और स्पेन के डकैतों से था परेशान 

पंद्रहवीं शताब्दी के अन्त तक युरोप के बाहर का सारा विश्व युरोप के दो राष्ट्रों का - स्पेन और पुर्तगाल  के डकैतों से परेशान था । सारे विश्व में आवागमन का एक ही मार्ग था - समुद्र; और युरोप के कई साहसिक नाविक नये नये देश, नयी भूमियाँ खोज रहे थे (आज जैसे तथाकथित रुप से मंगल व गुरु के ग्रहों तक पहुंचने की कोशिश हो रही है !) इन नये खोजे जानेवाले देशों के बारे में, इनके स्वामित्व के मुद्दे पर स्पेन व पोर्टुगल के बीच विवाद होता था ।

पृथ्वी के पश्चिम में जितने नये क्षेत्र  खोजे जायें उनका स्वामित्व स्पेन का हो

भारतीय संस्कृति में ही नहीं, विश्व की अन्य संस्कृतियों में भी उन दिनों धर्म-सत्ता सर्वोपरी होती थी और सामान्य रुप से न सुलझने वाले विवाद - धर्म-सत्ता के पास ले जाये जाते थे । स्पेन व पोर्टुगल का विवाद भी उन देशों की (ईसाई) धर्मसत्ता के पास पहुँचा । उस समय छठे पोप सर्वोच्च धर्मसत्ता के रुप में आसीन थे । इस विवाद का स्थायी हल निकालते हुए उन्होंने सन् 1492 में एक आदेश या फरमान (जिसे अंग्रेजी में Bull कहा जाता है) जारी किया कि पृथ्वी के पूर्व में जितने नये प्रदेश खोजे जायें उनका स्वामित्व पुर्तगाल का हो तथा पृथ्वी के पश्चिम में जितने नये प्रदेश खोजे जायें उनका स्वामित्व स्पेन का हो ।

चूँकि यह आदेश निकला सन 1492 में - यह वर्ष सारे विश्व के इतिहास को मोड़ देनेवाला वर्ष है । इसी आदेश के साथ एक फैसला यह भी हुआ कि सारे विश्व में एक ही प्रजा हो - श्वेत प्रजा, व सारे विश्व में एक ही धर्म हो - ईसाई धर्म । और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए विश्व की सारी अश्वेत प्रजा का विनाश हो - और ईसाई के अलावा अन्य सभी धर्मों का विनाश हो । सारे विश्व पर अपना स्वामित्व मानकर और उस स्वामित्व को प्रत्यक्ष करने के लिए उठाये गये कदमों पर अब नयी दृष्टि डालने से इस निर्णय के सत्य होने का प्रमाण मिलेगा ।

स्वामित्व के सिद्धांत का सर्व प्रथम प्रतिपादन हुआ विश्व के नये देशों को स्पेन व पुर्तगाल के बीच बाँट कर । अन्यथा क्या अधिकार था ईसाई धर्म की चर्च संस्था के प्रधान को कि वह ईश्वर की बनायी इस धरती व उसकी जीवसृष्टि को इस तरह बाँट सके ?

क्रिस्टोफर कोलंबस व वास्कोडिगामा ने क्रमशः अमेरिका व भारत को खोजा 1492 व 1498 में

विश्व के दो प्रदेश - विशाल धरती के प्रदेश, अमरिका व भारत, इस दुर्भाग्यपूर्ण फैसले के बाद खोजे गये । सन् 1498 में पुर्तगाल के नाविक वास्को-डी-गामा ने भारत की खोज की व उसके पहले सन् 1492 में ही क्रिस्टोफर कोलंबस ने अमरिका की खोज की । अमरिका के मूल निवासी `रेड इंडियन' जिनकी आबादी उस समय करीब 11 करोड़ थी, स्पेन की सेना की कत्लेआम के शिकार हुए और बीते 500 वर्षों में उनकी जनसंख्या घट कर अब सिर्प करीब 65,000 रह गयी है । आज अमरिका की सारी प्रजा `माईग्रेटेड' लोगों की प्रजा है, जो युरोप के अलग अलग राष्ट्रों से जा कर वहाँ बस गये हैं । 200 वर्ष पूर्व `स्पेन' के उपनिवेष के रुप में अमरिका `आज़ाद' जरुर हुआ, किंतु कहाँ हैं उसके मूल निवासी - वहाँ के रेड इंडियन्स ?

'साम - दाम - दंड - भेद' की नीति की भारत के परिप्रेक्ष्य में हुई समीक्षा 

भारत की प्रजा की अपनी युगों पुरानी संस्कृति थी । सुदृढ जड़ोंवाला सामाजिक, आर्थिक - राजनैतिक ढाँचा था, जिस पर धर्म का नियंत्रण व संरक्षण था । अत इस प्रजा के साथ एसा सलूक संभव नहीं था जैसा अमरिका की मूल प्रजा के साथ हुआ । अत इस प्रजा के तथा उसके धर्म के विनाश के लिए अलग नीति की आवश्यकता थी और अलग योजना की ।

`साम - दाम - दंड - भेद' की नीति की भारत के परिप्रेक्ष्य में समीक्षा हुई । `साम', समझाने पर इस देश की प्रजा कभी नहीं मानती, क्योंकि सर्वोत्कृष्ट सनातन, वैदिक व अन्य धर्मों के आश्रय में सर्वोत्कृष्ट जीवन का स्वाद यहाँ की प्रजा युगों से जानती थी । `दाम' का तो कोई अर्थ ही न था - यह देश सोने की चिड़िया था व समय समय पर यहाँ की समृद्धि की लालच में लुटेरे यहाँ आते थे और उनकी मोटी लूट के बावजूद यहाँ की आर्थिक समृद्धि पर कोई असर नहीं होता था । `दंड' भी यहाँ बेकार था । अतुल शौर्य के धनी क्षत्रियों के अलावा यहाँ की प्रजा मानसिक गौरव व शारीरिक बल-सौष्ठव की ऐसी धनी थी, देशाभिमान की भावना से इतनी भरी थी कि प्रजा-वत्सल - राजाओं की छत्रछाया में सारा देश सुरक्षित था । 1492 के पहले कितने ही मुगल, मंगोल और अन्य आक्रमणकारी यहाँ आये तो भी किसी के वश में यह देश नहीं आया ।

अब बचा सिर्फ `भेद' ! और इस शस्त्र को आजमाने का कार्य सोंपा गया भेद नीति में निपुण ब्रिटन को । इस तरह चाहे भारत की खोज की पोर्टुगल ने और पहली कोठी बनाई गयी गोवा में, किंतु भारत में मुख्य खेल खेलने के लिये चुना गया ब्रिटन को ।

इतने विशाल, सुसंस्कृत देश का विनाश `रेड इंडियन्स' के विनाश की तरह सरल न था । इस कार्य को योजनबद्ध तरीके से करने के लिए विशाल योजना बनाई गयी और योजना के प्रत्येक चरण के लिए करीब 100-100 वर्षों का कार्यकाल तय किया गया । बारीक से बारीक बात तय की गयी ।

पूरी सोलहवीं शताब्दी में ब्रिटन के कई `जासूस' यात्रियों के भेष में भारत आये

किसी भी आक्रमण में प्रथम चरण होता है दुश्मन की छावनी में अपने जासूस भेजना, दुश्मन के सारे प्रदेश की जानकारी लेना, उसकी शक्तियों तथा दुर्बलता के छिद्रों को जानना तथा हमले के लिए सर्वथा उपयुक्त समय तय करना । तद्नुसार पूरी सोलहवीं शताब्दी में ब्रिटन के कई `जासूस' यात्रिकों के भेष में भारत आये । वर्षो तक - दशकों तक, भारत में रहे - घूमे, भारत के कोने कोने में गये तथा भारत के अस्तित्व के हर पहलू के बारे में जानकारी लेकर उसका व्यवस्थित `डोक्युमेंटेशन' किया । यहाँ की वर्ण व्यवस्था, व्यक्तिगत स्तर पर चारों आश्रम की व्यवस्था, परिवार व समाज व्यवस्था, राजकीय व अर्थ व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, धर्म व्यवस्था, भौगोलिक स्थिति, ऋतुऐं, खेती की प्रणाली, व्यवसाय व उद्योग, प्राकृतिक संपदायें, रीतिरिवाज, मानव व अन्य जीव-सृष्टि का आपसी संबंध, पशुसृष्टि ईत्यादि, ईत्यादि - सभी कुछ उनकी पैनी नजर के नीचे आया और उन प्रवासियों की डायरी में नोट होता चला गया । उन सभी मुद्दों पर प्रशंसा के अलावा कुछ नहीं था और आज जो हमें इतिहास पढ़ाया जाता है उसमें इन डायरियों में की गई प्रशंसा को पढ़कर हम खुश होते है । वास्तव में 'Espionage' का इतना बड़ा दौर इतिहास में और कोई नहीं है ।

आक्रमण के प्रथम चरण - जासूसी के बाद, दूसरा चरण होता है शत्रु के दायरे में घुस कर हल्ला । किंतु भेद-नीति में चतुर अंग्रेज यह जानते थे कि आक्रमणकारी के रुप में यदि इस देश में घुसे तो बुरी मार पिटेगी ! अन्य (मुगल) आक्रमणकारी और सिकंदर इस तरह पिट चुके थे । इसलिये उन्हेने भेष बनाया व्यापारी का ! ब्रिटन की पार्लियामेंट ने `ईस्ट इंडिया कंपनी' को `चार्टर' दिया, अनुज्ञापत्र दिया कि जाओ भारत में व्यापार करो ।

एक मिनट, ब्रिटन की पार्लियामेंट को यह अधिकार कहाँ से मिला कि एक ऐसे देश में, जो उसके अधिकार क्षेत्र में किसी तरह नहीं है, व्यापार करने का परवाना दे सके? यदि आपको शहर में कोई दुकान खोलनी हो तो संबद्ध वॉर्ड का अधिकारी ही आपको परवाना दे सकता है, उसी शहर के किसी अन्य वॉर्ड के अधिकारी का परवाना नहीं चल सकता । तो फिर यह तो सात समन्दर पार के देश की बात है ।

किंतु यह पुष्टि है उस स्वामित्व के अधिकार की, जिसे स्वयंभू रुप से पोप महोदय ने अपने आप में निहित कर लिया है । जैसे हमारी संस्कृति का मंत्र है `सब भूमि गोपाल की', वैसे पश्चिम की संस्कृति का मंत्र है - `सब भूमि.....' स्वंयभू स्वामित्व का एक और उदाहरण - 2 दिसंबर 1964 को तत्कालीन पोप तब पहली बार भारत आये तब बिना किसी पासपोर्ट के आये थे । अपने ही स्वामित्व के देश में जाने के लिए पासपोर्ट की भला क्या आवश्यकता ?! खैर !

``ईस्ट इंडिया कंपनी'' सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत में भारत आयी

`चार्टर' लेकर आयी ``ईस्ट इंडिया कंपनी'' सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत में भारत आयी, बंगाल के नवाब के दरबार में चार्टर पेश किया, ब्रिटन को मुठ्ठीभर लोगों का गरीब देश बताया, भारत की समृद्धि और नवाब साहब के गुणगान किये, काँच के बने सामान का तोहफा दिया और - व्यापार के लिए कोठी बनाने की ईजाजत मांगी । उदार व भोले नवाब, कपटी गोरों की भेद-नीति से अनजान, अंग्रेजों के प्रभाव में आ गये और उसके बाद का इतिहास तो सर्वविदित है ।

कुछ ही वर्षो में कोठियों के आसपास किले बन गये और स्वरक्षा के बहाने सेना की छोटी छोटी टुकड़ियाँ भी आ गई । बंगाल (कलकत्ता) के अलावा बम्बई व मद्रास में भी कोठियाँ बनी ।

द्वितीय चरण में दुश्मन की छावनी में घुस जाने का काम पूरा हुआ । अब बारी थी दुश्मन के दारु-गोले के विनाश की । भारत की शक्ति थी उसकी हर क्षेत्र में सुद्रढ़ व्यवस्थाओं की - यही उसका दारु-गोला था । सबसे पहला लक्ष्य बना वर्ण व्यवस्था का विध्वंस । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र - इन चारों से, श्रम के विभाजन के सिद्धांत पर बनी पारस्परिक मेल-मिलाव वाली व्यवस्था के खंभों को एक एक करके तोड़ा गया ।

नयी शिक्षा नीति द्वारा गुरुकुल व्यवस्था को तोड़ कर ब्राह्मणों को दीन-हीन बनाया गया । धार्मिकता को अन्धविश्वास का रंग देकर प्रजा को शनैः शनैः धर्म के बारे में उदासीन बनाकर भी ब्राह्मणों की स्थिति बिगाडी गई और अंतत उन्हें सरकारी नौकरियों पर निभने को मजबूर किया गया ।

छोटे - छोटे राज्यों, राजाओं को आपस में लड़वा कर हारे हुए राजा का राज्य खालसा करके उसकी सेना का विसर्जन करवाया । जीते हुए राजा को भी संधि करके, अपना मित्र बनाकर, अपनी तोप व बन्दूक के सज़्ज सेना की सहायता का आश्वासन देकर उसकी सेना की संख्या भी कम करवायी और इस तरह से क्षत्रियों को बेरोजगार व अंतत सरकारी नौकरियों का आश्रित बनाया ।

वैश्य वर्ग को स्थानिक धंधों को सहारा न देने की शर्त पर ब्रिटन में बने माल की एजेन्सी ऊँचे कमिशन पर देकर, ``व्यापार याने व्यक्तिगत मुनाफा, सामाजिक उत्तरदायित्व नहीं'' - एसी पट्टी पढ़ाकर इस देश के विशाल कारीगर और गृह उद्योग में लगे लोगों से दूर किया और यह विशाल वर्ग भी बेरोजगार हुआ ।

शूद्रों को अन्य तीनों वर्गो के प्रति भड़काया और धन, शिक्षा, वैदकीय उपचार - सहायता वगैरह का लालच देकर उनका धर्मांतर किया और वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत समाज के अन्य वर्गो से उनका विच्छेद करवाया ।

आथिक क्षेत्र में कृषि और व्यवसाय दोनों क्षेत्रों में केन्द्र में भारत का पशुधन था । इस पशुधन को करोड़ो की संख्या में कत्ल किया और उसके स्थान पर मशीन आधारित उद्योगों को लाया गया । भारत की प्राकृतिक संपत्ति व कृषि क्षेत्र के उत्पादन को कोड़ियों के मोल ब्रिटन भेजा गया और उस कच्चे माल से बनी चीजें बीसीयों गुना दामों पर वापस भारत मंगाई जाने लगी । अर्थ व्यवस्था की आधार स्वरुप खादी को नष्ट किया गया और विध्वंस की इस परंपरा ने अपने खप्पर में कई बली लिये ।

सारी व्यवस्थाओं के विनाश का यह कार्यक्रम चला सन् - 1857 तक और योजना के उस चरण के अंत का समय आया । 1957 की लड़ाई में कारतूसों पर गाय व सूवर की चरबी लगाने की अफवाह जानबूझकर फैलाई गई, ताकि विद्रोह हो । योजना के अनुसार विद्रोह हुआ और उसके दमन में क्षत्रियों का जो श्रेष्ठ यौद्धा वर्ग बचा था उसका सर्वनाश हो गया ।

अब तीसरा चरण शुरु हुआ - `कंपनी सरकार' की बिदाई का और `रानी सरकार' के आगमन का । कंपनी सरकार के दमन व अत्याचार की दुहाई देकर उसका चार्टर रद्द किया गया और उसकी जगह महारानी विक्टोरियाने सन् 1858 के ``क्वीन्स प्रोक्लेमेशन'' द्वारा अपना राज्य घोषित कर दिया । कैसे ? वही स्वंयभू स्वामित्व !

`कंपनी सरकार' के दमन पर मरहम लगाने तथा उसकी तुलना में `रानी सरकार' का राज्य अच्छा कहलवाने के लिए सन् 1858 के बाद कई रचनात्मक प्रतीत होने वाले कदम लिये गये । सन् 1858 के आसपास ही बम्बई, कलकत्ता व मद्रास में प्रेसीडेंसी कॉलेज या युनिवर्सिटी की स्थापना हुई । योजना के आगे के चरणों के लिए जो स्थानिक नेता तैयार करने थे उनकी शिक्षा व पश्चिम परस्त `दीक्षा' के लिए इन कॉलेजों की स्थापना हुई । मोतीलाल नेहरु, अबुल कलाम आ़ज़ाद, गोखले, तिलक, चितरंजन बसु (दीनबंधु) इत्यादि इन कालेजों में पढ़े-बढ़े ।

सदाकाल के लिए बाहर से आये आततायी शासक के स्वरुप में अंग्रेज व उनके सूत्रधार उस देश में नही रहना चाहते थे - ऐसा करने पर वे विश्व में निंदा व घृणा के पात्र बनते । इसलिये Exit Policy बनाना भी जरुरी था, जिसमें बाह्य स्वरुप से उनकी Exit हो जाये, शाश्वत राज्य तो उन्हीं का चले ।

अंग्रेजों की नजर पड़ी दक्षिण अफ्रिका में कार्यरत गांधीजी पर और योजना के मुताबिक 1908 में गांधी जी भारत आये 

चले जाने के लिए एसा माहौल बनाना जरुरी था जिसमें स्थानीय प्रजा स्वतंत्रता का आंदोलन करे और इस आंदोलन के लिए एक नेतागीरी की आवश्यकता थी । भारत की पारंपारिक नेतागिरी - महाजन संस्था, उनकी योजना के अनुकूल नहीं हो सकती थी, इसलिये किसी नयी व्यवस्था को बनाने के लिए कांग्रेस पक्ष की स्थापना 1885 में की गयी । स्थापना की एक अंग्रेज ने और उसकी कमान दे दी गई अंग्रेजों की युनिवर्सिटीयों तथा विलायत में उच्च (कानून की ही तो !) शिक्षा प्राप्त लोगों के हाथ में । संस्था तो बन गयी, किंतु सारे देश को सम्मोहित करके एकजुट बनाने की प्रतिभा जिसमें हो वैसा नेता नहीं मिला ।

तभी अंग्रेजों की नजर पड़ी दक्षिण अफ्रिका में कार्यरत गांधीजी पर । दक्षिण अफ्रिका भी ब्रिटेन के ही आधीन था और गाँधीजी ब्रिटिश दमन के खिलाफ वहं लड़ रहे थे । गाँधीजी में उस प्रतिभा का दर्शन होते ही, गाँधीजी के इर्द-गिर्द जमे उनके ब्रिटिश मित्रों (?) ने उन्हें भारत आकर आझादी का संग्राम शुरु करने के लिए समझाया और इस तरह सन् 1908 में गांधीजी भारत आये । संस्था के रुप में कांग्रेस व सहयोगियों के रुप में ब्रिटिश शिक्षा संस्थाओं में पढ़ाये हुए अन्य नेता और सर्वोच्च नेता के रुप में गांधीजी ! योजना का इतना दोष रहति ढाँचा तैयार हो गया कि अब आयी अगले कदम की बारी ।

राजाशाही के रहते गोरों की भविष्य की योजना सफल नहीं हो सकती थी । अत उनका आमूल विच्छेद आवश्यक था । इसलिये पर्यायी शासन व्यवस्था जरुरी थी - एसी व्यवस्था जो भविष्य में उनके ईशारों पर नाचे और वह व्यवस्था एक ही हो सकती थी - चुनाव पद्धति पर आधारित प्रजातंत्र । अब इस व्यवस्था के मूल डालने का समय आया और प्राय सन् 1191 में पहली बार People's Representation Act बनाया गया । पहली बार प्रायोगिक रुप में चुनाव कराये गये और वहीं पर उसे छोड़ दिया गया ।

1959 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट बनाया गया 

कांग्रेस के नेताओं के माध्यम से स्वतंत्रता की माँग को लेकर आन्दोलनों का सिलसिला शुरु किया गया । स्वतंत्रता की माँग को अस्वीकार करके उसकी तीव्रता बढाई गई । नेताओं पर दमन करके प्रजा में उनकी छबी उभारी गई ताकि महाजन संस्था के स्थान पर नेतागिरी का यह नया स्वरुप पुष्ट होता जाये । नेताओं मे फूट डालकर, अलग अलग विचारधाराओं को पुष्ट करके भविष्य में अनेक राजनैतिक पक्ष बनें, उसकी नींव रखी गयी । भविष्य में स्थानीय लोगों द्वारा चलाई जाने वाली शासन व्यवस्था की नींव रखने के लिए सन् 1935 में Government of India Act बनाया गया । इसी Act को आगे चलकर भारत के नये संविधान का आधार बनाया गया ।

सन् 1935 के Gov. of India Act के तहत 1937 में चार प्रदेशों में प्रायोगिक रुप से फिर से चुनाव हुए और द्वितीय विश्व युद्ध शुरु होने पर इन प्रदेशों की धारासभाओं को अचानक भंग कर दिया गया । सन् 1939 मं द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन का साथ देने की शर्त पर स्वाधीनता का वचन दिया गया जिसे 1942 में युद्ध समाप्त होने पर न पालने की बात की गयी । स्वतंत्रता की माँग को इस तरह और तीव्र बनाया गया और `भारत छोड़ो' आंदोलन करवाया गया ।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद स्थापित `लीग ऑफ नेशन्स` को भंग करके द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सन् 1945 में ``युनाईटेड नेशन्स'' की स्थापना हुई (जो अभी अपनी स्थापना के 50 `सफल' वर्ष मना रही है !) भारत स्वतंत्र राष्ट्र न होते हुए भी उसे युनाईटेड नेशन्स का सदस्य बना दिया गया और इस तरह एक पिंजरे से मुक्ति के पहले ही उसे दूसरे पिंजरे में प्रवेश करा दिया गया । भारतीय संस्कृति में परमात्मा का स्वरुप निर्गुण, निराकार है । यूनो का पिंजरा भी वैसा ही निर्गुण, निराकार है, और जैसे आत्मा शाश्वत है, इस पिंजरे की गुलामी भी शाश्वत है !

1942 और 1947 के बीच में गौहत्या व अन्य मामलों पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच भयंकर दंगे करवा कर इतनी घृणा फैलायी कि एक हजार वर्षों से भाईयों की तरह एक समाज में साथ साथ रहने वाले हिन्दु और मुसलमान, स्वतंत्रता मिलने पर एक राष्ट्र में साथ रहने को तैयार नहीं थे । बाहरी तौर पर दो राष्ट्रों के निर्माण का विरोध करते रह कर उस माँग को और पुष्ट किया और नेताओं में फूट डालने के लिए कांग्रेस व मुस्लिम लीग से अलग अलग मंत्रणायें की ।

राजनैतिक क्षेत्र में हिन्दु - मुसलमान के बीच फूट तो डाली गयी थी सन् 1909 में, जब चुनाव प्रक्रिया के लिए मुस्लिमों की अलग Constituency बनायी गयी थी - `मॉर्ली मिन्टो सुधार' के तहत । योजनाबद्ध कार्यशैली का और क्या प्रमाण चाहिये ।

प्रमाण की बात पर एक और प्रमाण की याद आयी । हालाँकि इतिहास के कालक्रम में यह बात कुछ पीछे की है । सन् 1661 में पोर्टुगल के राजा ने अपनी पुत्री का विवाह ब्रिटन के राजकुमार से होने पर बम्बई का टापू दहेज में दिया था । बम्बई के टापू का स्वामित्व पोर्टूगल के राजा के पास कैसे आया ? वही स्वयंभू स्वामित्व !! यह टायू बाद में ब्रिटन के राजा ने ईस्ट इंडिया कंपनी को `लीझ' पर दे दिया ! खैर इतिहास के कालक्रम में वापस चलें ।

आजादी देने के पूर्व सन् 1946 में ही भारत का नया संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का गठन हुआ । संविधान बनाने के लिए British Cabinet Mission ने मार्गदर्शक रुप रेखा दी  जिसे Steel Frame कहा जाता है वैसा संविधान बनाया । किसने मॉगा था यह संविधान, कैसे प्रतिनिधी थे वे जिन्होंने यह संविधान बनाया, क्या वैधता है Independence of India Act 1947 की, वगैरह मुद्दे तो एक विस्तृत निबंध का विषय बन सकते हैं ।
अंतत 15 अगस्त 1947 को देश को दो टुकडों में बाँट कर आजादी देने के नाटक के साथ इस षड़यंत्रकारी योजना का तीसरा चरण पूरा हुआ ।

अब चलें चौथें और वर्तमान चरण की ओर, जिसका कार्यकाल है सन् 1947 से सन् 2047 या अगली शताब्दी के करीब मध्याह्न तक ।

यदि स्वतंत्रता आन्दोलन के फलस्वरुप ईमानदारी से यहाँ का राज्य छोड़कर चले जाना होता तो - ``लो संभालो अपना घर, हम तो यह चले!'' कहकर अंग्रेज यहाँ से चले जाते । किन्तु नहीं, `रीमोट कन्ट्रोल' से उनका सदाकाल राज्य चलता रहे एसी व्यवस्था, एसे कानून, एसा संविधान, एसी चुनावी व्यवस्था पर आधारित प्रजातंत्र की व्यवस्था, न्याय व्यवस्था वगैरह छोड़ गये । स्वतंत्र भारत के गर्वनर जनरल के रुप में लॉर्ड माउंटबेटन कुछ समय तक रहे ताकि तथाकथित `ट्राँसीशन' के समय के दौरान कोई गड़बड़ न हो ।

संविधान के तहत प्रथम आम चुनाव तो 1951 में हुए, किन्तु 1947 और 1951 के बीच कई कानून पास कर लिये गये । उस काल के दौरान कानून और संविधान के क्षेत्र में जो धांधली हुई उसकी तह पाने के लिए किसी देशभक्त कानूनविद द्वारा गहरी खोजबीन की आवश्यकता है । इसके अलावा ब्रिटिश राज्यकाल के दौरान बने दर्जनों कानूनों को स्वतंत्र भारत ने ज्यों का त्यों adopt कर लिया । वया था यह, नये स्वतंत्र राज्य का उदय या old wine in new bottle की तरह ब्रिटिश राज का सातत्य ?

स्वराज्य देते समय भारतवासी और ब्रिटिश सत्ताधीस दोनों खुश थे । भोले भारतीय यह समझ कर कि उन्हें `स्व' याने स्वंय का राज मिला और ब्रिटिश सत्ताधीश यह समझकर कि उन्होनें `स्व' याने स्वंय का राज भारत को दिया । पिछले 50 वर्षो में यह दूसरी व्याख्या ही फलीभूत होती नजर आती है ।

स्वतंत्रता मिलते ही `ऑक्टोपस' प्राणी के अनेकों `टेन्टेकल्स' की तरह `यूनो' की अनेक बाहों ने भारत के हर क्षेत्र को अपनी चुंगाल में लेना शुरु किया । नयी नेतागिरी को पश्चिमी राष्ट्रो की तड़क भड़क दिखा कर, भारत को भी एक नया अमरिका बनाने का उद्देश्य बनाकर, पश्चिमी विकास का ढाँचा अपनाने को समझाया गया और पश्चिम की शिक्षा प्रणाली (जो भारत में 100 वर्षो के अभ्यास से पुख्ता हो गई थी) से शिक्षित अफसरशाही ने उस ढाँचे को अपनाना और उसके अनुसार पंचवर्षीय योजनायें बनाना शुरु किया । उसकी उपलब्धि यह है कि आज भारत पर 7 लाख करोड़ रुपये का विदेशी कर्ज है । लूट के दाम पर भी भारत से कच्चा माल ले जाने वाला ब्रिटन 1947 में भारत का कर्जदार था । आज भारत मेक्सिको और ब्राजिल के बाद दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश है ।

1492 के षड़यंत्र की ओर फिर से चलें । दूसरे देशो सें आये नागरिकों को अपने देश में नागरिकत्व देने के लिए अमेरिका ने `ग्रीन कार्ड' की पद्धति बनाकर इस सिद्धांत को प्रस्थापित किया कि एक देश का नागरिक दूसरे देश का नागरिक भी बन सकता है । देश को गरीब बनाकर, विदेशी सहायता पर निर्भर बनाकर, अब उस सहायता - पूँजी निवेश के साथ ``दोहरी नागरिकता'' की शर्त धीरे से जोड़ी जा रही है । कुछ लाख या करोड रुपयों की पूँजी भारत में लगाने के एवझ में एसी पूँजी लगाने वाले को भारत का नागरिकत्व दिया जायेगा - हमारे (या उनके ?!) प्रधानमंत्री एसा वादा पश्चिम के देशों को कर आये हैं । अब विदेशी पूंजी पति इस देश के नागरिक बन जायेगें और चूंकि संविधान के अनुसार हर नागरिक के प्रजातंत्र की प्रक्रिया में (चुनाव में) हिस्सा लेने का अधिकार है, ये विदेशी (जो अब भारतीय नागरिक होंगे) हक से हमारी नगरपालिकाओं, विधानसभाओं, और संसद के सदस्य बन सकेगें । चुनाव पद्धति जिस तरह से चलती है उसमें `मनी पावर' व `मसल पावर' की मुख्य है और `मनी पावर' की तो इन विदेशीयों के पास कोई कमी नहीं है ।

सन् 1996 के आम चुनाव शायद देश के आखरी आम चुनाव होंगे जिसमें सभी चुने हुए प्रतिनिधि भारतीय होंगे । उसके बाद के सन् 2001 के चुनाव में कुछेक गौर चहेरे विधानसभाओं में व लोकसभा में नजर आयेगें (बाकायदा भारतीय नागरिक के रुप में !) और उसके बाद के याने सन् 2006 के चुनाव में कुछेक ही भारतीय चेहरे नजर आयेंगे ! दूसरी एक बात यह भी है कि सन् 2001 से ईसाईयों का नया सहस्त्र युग (मिलेनियम) शुरु हो रहा है और भारत में पश्चिमात्यों का राज्य इस शुभ (!) अवसर पर शुरु न हो तो कब होगा ?

नये सहस्त्र युग की बात पर से एक और करने योग्य बात है । इस युग का स्वागत करने की तैयारी पिछले वर्ष से शुरु हो गई है और पोप महाशय सारे विश्व का दौरा करते हुए ईसाईयों से लगातार कहते आ रहे हैं कि इस अवसर पर चर्च संस्था को अपने पापों की जगत से क्षमा मांगनी चाहिये । किन पापों की क्षमा ? क्षमा मांग कर दिल जीतने की अच्छी चाल है, ताकि पिछला हिसाब साफ करके योजना को बिना किसी आत्मवंचना के बोझ से आगे बढ़ाया जाय ।

भारतीय संस्कृति में जमीन, गाय व गाय का दूध - यें तीनो चीजें क्रय-विक्रय की वस्तु नहीं थी । इनका आदान प्रदान यदि होता था तो दान के रुप में ही - भोल-भाव लगाकर नहीं । अंग्रेजो ने अपना राज्य स्थापित करके एक पाई या पैसे प्रति गज के हिसाब से जमीन बेचना शुरु किया । कीमत का महत्त्व नहीं था, किंतु जमीनें खरीदी और बेची जा सकती है, यह सिद्धांत प्रस्थापित करना महत्त्व का था । इस सिद्धात को पुष्ट करने के बाद अब उदारीकरण व वैश्वीकरण के नाम पर भारतीय नागरिक ही नहीं, कोई भी जमीनें खरीद सकता है । जर्मन टाऊनशिप, जापानी टाऊनशिप, टेकनोलोजी पार्प आदि के नाम पर हजारों एकड़ जमीनें विदेशी खरीद रहे है । यदि 100 एकड़ जमीन बिक सकती है, तो 1000 एकड़ भी बिक सकती हैं, लाख एकड़ भी बिक सकती है, सिर्प पैसा चाहिये जो हमें लूट लूट कर पश्चिम के देशों ने खूब इकठ्ठा कर लिया है । यहि तर्प के लिए मान लिया जाय कि सारी जमीन विदेशियों ने दाम देकर खरीद ली, तो भारतीय किस हक से और कौन सी जमीन पर रहेंगे ? यदि रह सकेगें को सिर्प उनकी महेरबानी पर, उनके गुलाम बनकर ।

शासनकर्ता के रुप में भी वही हेंगे, अलबत्ता अब भारतीय के रुप में, हमारी और आपकी तरह संविधान से अपना हक पाकर, और तब पूरा होगा एक नये अमेरिका का निर्माण ।

इस दीर्घकालीन षडयंत्र का एक और पहलू है - इस देश का नामकरण । इस देश का अपना मूल नाम है `भारत'- भरत राजा के नाम पर । हिन्दु प्रजा का देश होने के नाते दूसरा नाम है - हिन्दुस्तान । किन्तु उसे भी बदल कर `इर्न्डिया' बना गया, कैसे ? नाम बदलने की सत्ता कैसे आयी - वही स्वयंभू स्वामित्व । हमारे संविधान में पहली ही पंक्ति में दो बार `ईन्डिया' शब्द का प्रयोग करके इस नामकरण को सदा के लिए पुष्ट कर लिया गया है । यदि हम सचमुच स्वतंत्र होतो तो क्या अपना `नाम'-निशान यूँ मिटता ?

इतना सब होने पर भी अभी मूल उद्देश्य तो सर्वथा सिद्ध नहीं हुआ है - ``एक प्रजा, श्वेत प्रजा, एक धर्म, ईसाई धर्म'' । प्रजा के नाश के लिए उसे भुखमरी, गरीबी की तरफ धकेला जा रहा है, ताकि सोमालिया और इथियोपिया की तरह प्रजा का एक बडा हिस्सा नष्ट हो जाये । गरीबी से बचने वाले सभ्रांत हिस्से को सांस्कृतिक रुप से इतना पतित किया जा रहा है कि मानव के रुप में उनका अस्तित्व कोई अर्थ न रखे । एक तरफ से चर्च संस्था परिवार नियोजन का विरोध करती हैं - ताकि श्वेत प्रजा की निरंकुश वृद्धि होती रहे, जो भारत जैसे देशों में बस सके, और दूसरी तरफ भारत की `विस्फोटक' जनसंख्या की दुहाई देकर परिवार नियोजन का विराट कार्यक्रम `युनिसेफ', `डबल्यु.एच.ओ.' वगैरह के माध्यम से चलाया जा रहा है जिसके लिए करोड़ों की धनराशि सहायता रुप में दी जा रही है । यदि भारत की जनसंख्या के आंकड़ो की समीक्षा की जाये तो आयु प्रमाण में बड़ी आयु के लोगों का प्रमाण निरंतर बढ़ता जा रहा है और युवा लोगों का प्रमाण कम होता जा रहा है । किती भी अन्यायी परिस्थिति का विरोघ - विद्रोह युवा पीढ़ी ही कर सकती है । इसलिए योजना एसी बनायी जा रही कि जब इस षडयंत्र का Final Assult हो तब देश में युवा पीढ़ी बिल्कुल कम हो और देस पर अंतिम प्रहार किया जा सके । परिवार नियोजन के पीछे यह भेद है - अन्यथा परम करुणामयी धरती माता की तो यह क्षमता है कि आज की विश्व की कुल आबादी से दुगनी आबादी का भरणपोषण करने की भी उसमें क्षमता है । प्रश्न न्यायी वितरण व्यवस्था का है, जो अन्यायिओं के हाथ में है - जो करोड़ो टन अनाज दरिया में पेंक देते हैं, दूध के उत्पादन के नियंत्रण के लिए लाखों गायों की हत्या करतें हैं, अनाज गोदामों मे सड़े और गरीब भूखों मरें एसी स्थिति बनाते हैं ।

गोरों की इस चाल में खतरा था भारत की राजाशाही व्यवस्था का । इसलिए स्वतंत्रता के बाद सभी देशी राजाओं को भारतीय गणतंत्र में शामिल कर लिया गया । दुर्भाग्य से सरदार पटेल जैसे बुद्धिशाली व्यक्ति इस चाल को नहीं समझ पाये और देशी राजाओं के विलीनीकरण का यह भगीरथ कार्य अपने हाथों से कर गये । पहले राजाओं को उनके निर्वाह के लिए वार्षिक `प्रिवी-पर्स' दिया गया और फिर विश्वासधात करके प्रजातंत्र और संसद की सर्वोपरिता का बहाना बनाकर वह प्रिवी-पर्स भी छीन लिया । कौन था इसके पीछे ? यदि यह खर्च बोझ था तो फिर आज के नये राजाओं के पीछे जो खर्च होता है, वय क्या कम है ? कौन था इसके पीछे ? यदि यह खर्च बोझ था तो फिर आज के नये राजाओं के पीछे जो खर्च होता है, वय क्या कम है ? किंतु ये नये राजा तो चूंकि `उनका' राज्य चलाते हैं इसलिये यह खर्च ज़ायज है ।

भूख और गरीबी से विनाश और सांस्कृतिक रुप से अधपतन, ये दोनों मिलकर आने वाले दसकों, शतकों में स्थानीय प्रजा का पूर्ण विनाश करेगें और बचे-खुचे लोग `रेड-इंडियन्स' की तरह देश के किसी कोने में जीवन बितायेगें ।

अब एक धर्म - ईसाई धर्म की बात । शुद्रों के धर्मांतर से चला यह सिलसिला गुढ़ रुप से किंतु बड़े पैमाने पर आज भी चल रहा है । श्री अरुण शौरी की पुस्तक `मिशनरीस इन इर्न्डिया' पढ़ने पर रोंगटे खड़े हो जाते है । दलित - ईसाईयोंने आरक्षण की मांग की है और कठपुतली की तरह नाचती यह सरकार एसा आरक्षण मान भी लेगी । आरक्षण की सुविधा के लालच से और ज्यादा लोग ईसाई बनेंगे और इस तरह से क्रम चलता रहेगा । धर्मांतर औपचारिक रुप से नहीं करनेवाला वर्ग भी अपने दैनिक जीवन, पहनावे, रीति-रिवाज, सोचने का ढंग, व्यवसाय, सामाजिक जीवन वगैरह में हिन्दू या वैदिक संस्कृति से मीलों दूर जाकर ईसाई संस्कृति के नजदीक आ गया है । मस्तक और छाती पर चाहे वह क्रॉस न बनाता हो, अभी भी राम व शिव या शक्ति के मंदिर में जाता हो, वैचारिक रुप से तो वह ईसाई संस्कृति के करीब करीब एकरुप हो ही गया है ।

इस सारे षढयंत्र के चलते आज देश की उन्नति, प्रजा की अवनति; खेती की उन्नति, किसान की अवनति; उद्योगों की उन्नति, मजदूर की अवनति; शिक्षा की उन्नति विद्यार्थी की अवनति, वगैरह वगैरह देखने को मिलती है ।

एक बात और गौर करने लायक है । वह है भारत के लिये काश्मीर का प्रश्न । पड़ोसी देशों से सफल टक्कर ले सकने की क्षमता वाले देश में क्या इतनी क्षमता नहीं कि वह यह प्रश्न को सुलझा ले ? किंतु गोरी सत्तायें नहीं चाहती कि यह प्रश्न सुलझे, इसलिए कठपुतलियों की एसी रस्सी खींची जा रही है कि यह प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहे । सही रहस्य यह है कि - `गेम-प्लान' के मुताबिक काश्मीर न भारत को देना है न पाकिस्तान को । वहाँ की आबोहवा यूरोप की आबोहवा के समान होने से यह भविष्य में भारत की राजधानी बनाने के लिए सुरक्षित रखा गया है । वह राजधानी बनेगी गोरों की संपूर्ण सत्ता भारत में होने के बाद । काश्मीर के Annexation का दस्तावेज खो गया है । क्यों, कैसे ?

यही कारण है कि आम भारतीय काश्मीर में जमीन, मकान नहीं खरीद सकता, उद्योग या व्यवसाय नहीं लगा सकता, और तो और संविधान के कई हिस्से और भारत के कई कानून काश्मीर में लागू नहीं होते । यह कैसा सार्वभौमत्व है और कैसे काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है ?

षढयंत्र की यह परंपरा काफी लम्बी और भारत के बाहर से शुरू होती है जो आज भी भारत की राजनीति को सीधे –सीधे प्रभावित कर रही है और हम सत्य को जाने बिना टिप्पणी करते रहते हैं |

लेख साभार : http://deepakrajsimple.blogspot.com/2018/02/blog-post_55.html

No comments

स्वीकृति 24 घंटों के बाद